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काफिर

कुछ बातें अनकही
कुछ बातें अनकही
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मुद्दतो बाद एक नज़्म ने फिर से छेड़ा है मुझे
कुछ लफ्ज़ थे जो जुबान पे आने से कतरा रहे है
फर्क कुछ खास नही आया है आलम में तब से अब तक
पहले वो साथ थे मेरे,अब उस ओर से मुस्करा रहे है
मै भी सोचता था कहकशे लगाऊंगा इबादत में उसकी
मालूम न था कदम किस ओर चले जा रहे है
वक़्त गुज़र गया हाथो से ,समझ तब आया काफ़िर
रंज ऐ मोहब्बत हम अकेले ही निभाए जा रहे है
साँसों की गर्मी में कुछ फंस से गये है वो
हम है की ये ज़हर भी हंस के पिए जा रहे है
और रह भी क्या गया है अब बस्ती में हमारी
साकी बन गयी है महबूबा और हम फिरसे डूबे जा रहे है

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