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खुदा का नूर

कुछ बातें अनकही
कुछ बातें अनकही
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उसकी बरकत में मुझे मिल जाता है सुकून
उसकी रहमत से मेरी जिंदगी रवां है
कहने को शिकायत हर एक के होठो पे है
पर खुदगर्ज़ जुबानो पे वो नज़्म ही कहाँ है
की कर दे शुक्र उस खुदा का भी कभी
जो देता है बेहिसाब बेसवाल सभी को
उसकी मिलकियत पे पर्दा उसकी जरूरत से पड़ा है
दर पे उसके जा के भी बस माँगा है हमेशा
और वो है कि आज भी बाहें फैलाये खड़ा है
जिंदगी के चंद मुद्दों में इंसान उलझ गया है कैसे
मंदिर मस्जिद को लेकर वो खुद से ही लड़ा है
राम रहीम में तुम न भेद करना कभी
उसकी शक्शियत से ज्यादा उसका नाम ही बड़ा है
कभी मिले जो फुर्सत तो याद कर लेना उसे
उसका दर तो बन्दों के लिए खुला ही पड़ा है
कोई ख्वाइश न रखना इस बार तुम भी
उसके नूर से ही तेरा ज़मीर खड़ा है

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